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ISRO के 4 मिशन, जिनमें आखिरी सेकेंड्स में छिटकी कामयाबी: 43 साल पहले फेल हुआ था ISRO का पहला मिशन…अब SSLV की पहली उड़ान असफल

दुनिया में सबसे सस्ते सैटेलाइट लॉन्चिंग के लिए चर्चित इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन, यानी ISRO की कम समय में तैयार होने वाले SSLV रॉकेट की पहली लॉन्चिंग असफल हो गई है। इससे ISRO की SSLV के जरिए दो सैटेलाइट्स को लॉन्च करने की योजना परवान नहीं चढ़ पाई।

ये पहली बार नहीं है जब ISRO को स्पेस मिशन में असफलता मिली हो। पहले भी ऐसे कई पल आ चुके हैं, जब सफलता के बेहद करीब पहुंचकर भी महज कुछ सेकेंड के फासले से कामयाबी ISRO के हाथ से छिटक गई।

मिशन क्या था?

ISRO 7 अगस्त 2022 को अपने नए रॉकेट स्मॉल सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल यानी SSLV की लॉन्चिंग से इतिहास रचने उतरा। जानिए इसकी लॉन्चिंग के मिनट-दर-मिनट में क्या हुआ था।

सुबह 9 बजकर 18 मिनट: ISRO ने 34 मीटर लंबे रॉकेट SSLV-D1 को श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन स्पेस सेंटर से पहली बार लॉन्च किया।

SSLV-D1 के जरिए दो सैटेलाइट EOS-2 और स्टूडेंट्स मेड सैटेलाइट AzaadiSAT को स्पेस में लॉन्च किया गया।

शुरुआती कुछ मिनटों तक सब कुछ ठीक था।

सुबह 10 बजकर 4 मिनट: ISRO ने SSLV की पहली उड़ान पूरी होने की जानकारी दी। ISRO ने बताया कि सभी चरण उम्मीद के मुताबिक पूरे हुए, लेकिन टर्मिनल यानी आखिरी स्टेज में कुछ डेटा लॉस देखा गया था, जिसका आकलन किया जा रहा है।

दोपहर में 2 बजकर 48 मिनट: ISRO ने ट्वीट के जरिए बताया कि दोनों सैटेलाइट्स सेंसर फेल्योर की वजह से अपनी तय ऑर्बिट यानी कक्षा में पहुंचने में नाकाम रहे और इस्तेमाल के लायक नहीं रह गए।

रिपोर्ट्स के मुताबिक, समस्या SSLV के टर्मिनल स्टेज यानी आखिरी चरण से शुरू हुई, जिसे वेलोसिटी ट्रिमिंग मॉड्यूल यानी VTM कहा जाता है। VTM को लॉन्चिंग के 653 सेकेंड्स बाद 20 सेकेंड के लिए जलना था, लेकिन ये केवल 0.1 सेकेंड के लिए ही जला, इसी वजह से रॉकेट उतनी ऊंचाई तक नहीं जा सका, जितना उसे जाना था। (तस्वीर साभार: ISRO)

कहां पर गड़बड़ी हुई?

ISRO ने अपने बयान में कहा कि SSLV-D1 ने दोनों सैटेलाइट्स (EOS-2 और AzaadiSAT) को सर्कुलर ऑर्बिट यानी वृत्ताकार कक्षा के बजाय इलिप्टिकल ऑर्बिट यानी अंडाकार कक्षा में प्लेस कर दिया था।

ISRO ने कहा, ”SSLV-D1 ने सैटेलाइट्स को 356 किलोमीटर वृत्ताकार कक्षा के बजाय 356 किमी x 76 किमी दीर्घ वृत्ताकार या अण्डाकार कक्षा में स्थापित किया। सैटेलाइट्स अब इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं।”

सैटेलाइट्स लॉन्चिंग की इस विफलता की वजह भी ISRO ने साफ करते हुए इसे सेंसर की विफलता बताया। ISRO के अनुसार, ”समस्या की पहचान कर ली गई है। सेंसर फेल्योर की पहचान करने की विफलता और नुकसान से बचने के एक्शन से रॉकेट में डेविएशन यानी विचलन हुआ।”

ISRO के चेयरपर्सन एस सोमनाथ में बाद में एक वीडियो संदेश में कहा, ”रॉकेट ने पहले चरण में शानदार उड़ान भरी थी और इसके बाद दूसरे और तीसरे चरण में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया।’’

उन्होंने कहा, ‘’मिशन का प्रदर्शन बहुत अच्छा था और आखिर में ये जब ऑर्बिट में 356 किलोमीटर की ऊंचाई पर पहुंच गया तो सैटेलाइट्स अलग हो गए। हालांकि, बाद में हमने सैटेलाइट्स के ऑर्बिट में स्थापित होने में खराबी देखी थी।”

SSLV D-1 से दो सैटेलाइट लॉन्च हुए थे, जो निर्धारित ऑर्बिट में नहीं पहुंच सके। पहले सैटेलाइट EOS-2 का पूरा नाम अर्थ ऑब्जर्वेशन सैटेलाइट्स था। इसे पहले माइक्रोसैटेलाइट-2 के नाम से जानते थे। 142 किलो वजनी इस सैटेलाइट्स में 6 मीटर रेजोलूशन वाले मिड-वेवलेंथ और लॉन्ग वेवलेंथ इंफ्रारेड कैमरे लगे थे। वहीं स्टूडेंट्स मेड सैटेलाइट AzaadiSAT में 75 अलग पेलोड थे, जिनमें से प्रत्येक का वजन करीब 50 ग्राम था। इस सैटेलाइट का कुल वजन 8 किलो था। इस सैटेलाइट को स्पेस किड्स इंडिया प्रोग्राम के तहत देश के 750 स्कूलों की छात्राओं ने तैयार किया था। (तस्वीर साभार: ISRO)

चलिए अब समझ लेते हैं कि आखिर ISRO का SSLV मिशन क्यों फेल हुआ?

आमतौर आर्टिफीशियल सैटेलाइट्स दो तरह से घूमते हैं:

पृथ्वी के चारों ओर इंसानों के बनाए उपग्रह यानी सैटेलाइट्स मोटे तौर पर दो तरह की कक्षाओं में घूमते हैं।

1. जियो स्टेशनरी ऑर्बिट यानी भू-स्थैतिक कक्षा:

क्या आपने कभी सोचा है कि आपके घरों पर लगे DTH के डिश एंटीना में धरती के ऊपर घूमने वाले सैटेलाइट्स से सिग्नल आते हैं, फिर भी हमें इन डिश एंटीना को घुमाना क्यों नहीं पड़ता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इन सिग्नल भेजने वाले सैटेलाइट्स की स्पीड धरती की स्पीड के मैच कर रही होती है, इसलिए अंतरिक्ष में घूमने के बावजूद ये धरती के सापेक्ष स्थिर रहते हैं।

ऐसे उपग्रह को जियो स्टेशनरी सैटेलाइट्स कहते हैं और उनकी कक्षाओं को भू-स्थैतिक ऑर्बिट कहते हैं। इन कक्षाओं में घूमने वाले सैटेलाइट्स पृथ्वी पर किसी एक बिंदु के सापेक्ष स्थिर रहते हैं। आमतौर पर ये कक्षाएं भूमध्य रेखा यानी धरती को दो बराबर हिस्सों में बांटने वाली काल्पनिक रेखा के ऊपर होती हैं। भू-स्थैतिक कक्षाओं में घूमने वाले सैटेलाइट्स का इस्तेमाल आमतौर पर टेली कम्यूनिकेशन में किया जाता है।

जियो स्टेशनरी सैटेलाइट्स के पृथ्वी के चारों ओर घूमने का रास्ता इलिप्टिकल यानी अंडाकार होता है। कभी ये पृथ्वी के करीब आते हैं और कभी दूर चले जाते हैं।

2. नॉन-जियो स्टेशनरी ऑर्बिट:

मई 1998 में भारत का दूसरा परमाणु परीक्षण तो आपको याद ही होगा। इन परीक्षणों को अमेरिका की नजरों से बचाने के लिए हमारे वैज्ञानिकों की टीम एक निश्चित समय काम करती थी और उसके बाद उस पूरे इलाके को एक तय में समय इस तरह से ढंक देते थे कि अमेरिका की जासूसी सैटेलाइट्स उसे पकड़ ना सकें। इस तरह हम कामयाबी से बिना दुनिया के पता चले परमाणु परीक्षण कर पाए। लेकिन क्या आपने सोचा? ये जासूसी सैटेलाइट्स एक तय समय पर ही भारत के पोखरण के ऊपर से क्यों गुजरते थे।

दरअसल, जासूसी सैटेलाइट्स पृथ्वी के चारों ओर ऐसी कक्षाओं में घूमते हैं, जिनमें उनकी स्पीड धरती से मैच नहीं करती है। यानी वो धरती से किसी एक बिंदु के सापेक्ष स्थिर नहीं रहते हैं और तय समय पर किसी एक जगह के ऊपर से गुजरते हैं। ये सैटेलाइट्स सर्कुलर यानी वृत्ताकार कक्षाओं में घूमते हैं।

अब आते हैं ISRO के SSLV के लॉन्च पर। SSLV को जो उपग्रह छोड़ने थे उन्हें धरती से 356 किलोमीटर ऊपर सर्कुलर या वृत्तीय ऑर्बिट में स्थापित करना था, लेकिन सेंसर फेल होने की वजह से रॉकेट ने उन्हें इलिप्टिकल यानी अंडाकार कक्षाओं में छोड़ दिया था।

ISRO अब आगे क्या करेगा?

इस मिशन की असफलता के बाद ISRO ने कहा है कि एक कमिटी इस मामले का आकलन करेगी और अपनी सिफारिश सौंपेगी। इन सिफारिशों को लागू करने के बाद ISRO जल्द ही SSLV-D2 की लॉन्चिंग करेगा।

2. चंद्रयान-2 चंद्रमा की सतह से महज 500 मीटर दूर रह गया था

6 सितंबर 2019 को चंद्रयान-2 के जरिए ISRO ने चंद्रमा की सतह पर लैंडिंग का पहला प्रयास किया था। इस मिशन में अंत तक सब कुछ ठीक रहा, लेकिन लैंडिंग से महज 500 मीटर पहले लैंडर से संपर्क टूट गया।

ISRO ने चंद्रमा के अपने दूसरे मिशन चंद्रयान-2 को GSLV Mark III-MI के जरिए 22 जुलाई 2019 को लॉन्च किया था। इस मिशन में एक लूनर ऑर्बिटर, विक्रम लैंडर, और प्रज्ञान लूनर रोवर शामिल था। 20 अगस्त को चंद्रयान-2 चंद्रमा की ऑर्बिट में पहुंचा। विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर को 6 सितंबर को चंद्रमा के साउथ पोल में लैंड करना था, लेकिन लैंडिंग से महज कुछ मिनट पहले लैंडर क्रैश हो गया।

अगर अपने चंद्रयान-2 मिशन को ISRO चंद्रमा की सतह पर सफलतापूर्वक लैंडिंग करा पाता तो भारत ये कारनामा करने वाला रूस, अमेरिका और चीन के बाद चौथा देश बन जाता। ISRO की योजना 2023 में चंद्रयान-3 के साथ फिर से चंद्रमा पर लैंडिंग करने की है।

गड़बड़ी कहां हुई थी?

ISRO ने क्रैश की वजह एक सॉफ्टवेयर ग्लिच को बताया था। दरअसल, विक्रम लैंडर का चंद्रमा की सतह से करीब 500 मीटर पहले संपर्क टूट गया था और लैंडर क्रैश हो गया था।

ISRO के तत्कालीन चीफ के सिवन ने जनवरी 2020 में रोवर विक्रम के चांद पर लैंडिंग में विफल रहने की वजह बताते हुए कहा था, ”लैंडर की वेलॉसिटी 15 मिनट के अंदर चार चरणों में 6 हजार किमी/घंटे से 0 किमी/घंटे होनी थी। लेकिन दूसरे चरण में वेलॉसिटी जितनी घटनी थी उतनी नहीं घट पाई, इसकी वजह से तीसरे चरण को हैंडल ही नहीं किया जा सका।”

साथ ही चंद्रमा पर लैंडिंग से महज कुछ सौ मीटर पहले विक्रम लैंडर निर्धारित 55 डिग्री के बजाय 410 डिग्री तक झुक गया था। चूंकि विक्रम ऑटोनॉमस मोड में लैंड कर रहा था, ऐसे में वैज्ञानिक विक्रम को सीधा करने के लिए कुछ नहीं कर पाए।

ये तस्वीर चंद्रयान-2 के 1471 किलो वजनी विक्रम लैंडर की है, जो चांद पर लैंडिंग से ठीक पहले क्रैश हो गया था। ISRO के मुताबिक, विक्रम लैंडर ने लैंडिंग से 400 मीटर पहले तक अपने परफॉर्मेंस डेटा को ट्रांसमिट किया था। इस डेटा की मदद से ISRO को उम्मीद है कि उसका चंद्रयान-3 मिशन सफल होगा। (तस्वीर साभार: ISRO)

3. ISRO के सबसे कामयाब रॉकेट PSLV की पहली उड़ान भी रही थी असफल

ISRO के सबसे विश्वनसीय लॉन्च व्हीकल में शामिल पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल यानी PSLV भी अपनी पहली उड़ान में असफल रहा था। 20 सितंबर 1993 को ISRO ने PSLV-D1 की पहली लॉन्चिंग की थी। ISRO ने PSLV-D1 के जरिए IRS-1E नामक सैटेलाइट स्पेस में लॉन्च किया था। लेकिन ये मिशन असफल रहा था और PSLV IRS-1E सैटेलाइट को ऑर्बिट में नहीं पहुंचा पाया था।

गड़बड़ी कहां हुई थी?

PSLV-D1 की लॉन्चिंग में पहले और दूसरे चरण का प्रदर्शन उम्मीद के अनुसार रहा था, लेकिन ऊंचाई को नियंत्रित करने की समस्या की वजह से सैटेलाइट के रॉकेट से अलग होने के दूसरे और तीसरे स्टेज में समस्या आई। इस वजह से सैटेलाइट ऑर्बिट में पहुंचे में असफल रहा।

पहली असफलता के बाद PSLV के 94% मिशन रहे सफल

अक्टूबर 1994 में पहली सफल लॉन्चिंग के बाद PSLV भारत का सबसे बेहतरीन लॉन्च व्हीकल बन गया। जून 2017 तक इसने लगातार 39 सफल मिशनों को अंजाम दिया।

1 जुलाई 2022 तक ISRO के PSLV के जरिए लॉन्च 55 मिशनों में 52 मिशन सफल रहे थे, यानी PSLV की सक्सेस रेट करीब 94% रही है।

ISRO के सबसे कामयाब लॉन्च व्हीकल PSLV ने सितंबर 1993 में पहली लॉन्चिंग में असफल होने के बाद से पीछे मुड़कर नहीं देखा।

4. 43 साल पहले पहली बार फेल हुआ था ISRO का मिशन

ISRO का पहला स्पेस मिशन ही असफल रहा था। ISRO ने 10 अगस्त 1979 को श्रीहरिकोटा से देश के पहले सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल यानी SLV-3 की पहली लॉन्चिंग की थी।

SLV-3 के जरिए ISRO ने रोहिणी टेक्नोलॉजी पेलोड यानी RTP नामक सैटेलाइट लॉन्च किया था। रोहिणी 35 किलोग्राम का एक एक्सपेरिमेंटल स्टैबलाइज्ड सैटेलाइट था।

गड़बड़ी कहां हुई थी?

रोहिणी टेक्नोलॉजी पेलोड सैटेलाइट में SLV-3 की उड़ान की निगरानी के लिए इंस्ट्रूमेंट्स लगे थे। हालांकि, SLV उस समय एक एक्सपेरिमेंटल रॉकेट ही था, इसलिए वह रोहिणी को निर्धारित ऑर्बिट तक नहीं पहुंचा पाया और ISRO का ये लॉन्चिंग मिशन असफल रहा।

SLV की पहली लॉन्चिंग की असफलता के अगले ही साल यानी 1980 में ISRO ने रोहिणी RS-1 सैटेलाइट को SLV से ही सफलतापूर्वक लॉन्च किया था। हालांकि 1981 में रोहिणी RS-D1 सैटेलाइट की लॉन्चिंग असफल रही, लेकिन 1983 में ISRO ने रोहिणी RS-D2 को सफलतापूर्वक लॉन्च किया था।

दुनिया की सबसे कामयाब स्पेस एजेंसी है ISRO

कुछ मिशनों की असफलता के बावजूद 1969 में बना ISRO दुनिया के सबसे कामयाब स्पेस एजेंसियों में शुमार है।

7 अगस्त 2022 तक ISRO ने अपने 84 स्पेस मिशन लॉन्च किए थे, इनमें से 67 सफल, 5 आंशिक सफल रहे हैं। वहीं केवल 10 में उसे असफलता मिली है। अपने मिशनों के अलावा करीब 100 से अधिक विदेशी स्पेस मिशनों में भी ISRO शामिल रहा है।

अमेरिका के NASA, यूरोपियन स्पेस एजेंसी और रूस की Roscosmos जैसे स्पेस ऑर्गेनाइजेशन भले ही आर्थिक रूप से ज्यादा मजबूत हों, लेकिन स्पेस मिशन की लॉन्चिंग की सफलता के मामले में ISRO से आगे नहीं हैं।

ISRO की कामयाबी की सबसे खास बात ये है कि अब तक उसके किसी भी स्पेस मिशन में किसी की जान नहीं गई है। सोवियत रूस और नासा दोनों को स्पेस मिशन के दौरान इंसानों की जानें गंवानी पड़ी हैं।

1965 में सोवियत रूस के सोयूज-1 अंतरिक्ष यान धरती पर लौटते समय पैराशूट नहीं खुलने से धरती पर क्रैश हो गया था, जिसमें उसके अंतरिक्ष यात्री व्लादिमिर कोमारोव की मौत हो गई थी। इसी तरह 1971 में सोवियत के अंतरिक्ष यान सोयूज-11 के स्पेस में डीकंप्रेशन से तीन अंतरिक्ष यात्रियों की मौत हो गई थी। वहीं 2003 में अमेरिकी स्पेस एजेंसी NASA के स्पेस शटल कोलंबिया के क्रैश होने से कल्पना चावला समेत 7 अंतरिक्ष यात्रियों की मौत हो गई थी।

खास बात ये है कि ISRO की सफलता दर NASA जैसी प्रमुख स्पेस एजेंसी से भी बेहतर है। ISRO के पूर्व प्रमुख और स्पेस साइंटिस्ट माधवन नायर ने 2021 में एक इंटरव्यू में कहा था- अगर हम ग्लोबल लॉन्च हिस्ट्री को देखें, तो असफलता की दर 10% है। अब तक ISRO द्वारा किए गए 200 के करीब लॉन्च में हमारी असफलता दर केवल 5% है।

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Pradeep Sharma

SNN24 NEWS EDITOR

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