ब्लैकबोर्ड

ह्यूमन ट्रैफिकिंग में फंसी बच्चियों की कहानी: तब मैं छोटी थी…कभी वो नोंचने दौड़ते कभी काटने…भागना चाहा…लेकिन पकड़ी गई

दो वक्त भरपेट रोटी का सपना लिए घर से निकली। एक ख्वाब और था- फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने और पक्का घर बनाने का। दिल्ली पहुंची तो स्कूल की जगह खुद को एक घर में बंद पाया। प्यार देने वाले परिवार के बदले मुझे कुछ पागलों के बीच रखा गया। मेरा काम था, उनकी देखभाल करना और गालियां सुनना।

बच्ची थी। हरदम डरी रहती। कुछ भी कहो, वे कभी नोंचने दौड़ते, कभी काटने। भागना चाहा, लेकिन पकड़ी गई। फिर एक रोज आधी रात को एजेंट ने ट्रेन में बिठा दिया। न हाथ में पैसे थे, न टिकट। झारखंड से दिल्ली निकलते हुए पास में एक गठरी थी और ढेर सारे सपने। लौटते वक्त मैं एकदम खाली हो गई।

अब कोई पूछे कि जिंदगी की सबसे बड़ी गलती क्या है तो मैं कहूंगी- ताजा खाने की इच्छा! भूख ने मुझे नरक दिखा दिया।

सख्त लहजे में, भिंचे हुए चेहरे के साथ मंजू अपनी बात कहती हैं। इनके बचपन का बड़ा हिस्सा मानव तस्करों के चंगुल में बीता। उस दुनिया में जहां अंधेरों और गुमनामी के सिवा कुछ नहीं। सुदूर गांवों, गरीब घरों की कम उम्र बच्चियां एक बार निकलें तो वापसी के सारे रास्ते खुद-बखुद बंद होते चले जाते हैं।

बच भी गईं तो ‘दिल्ली-रिटर्न्ड’ का धब्बा साथ चलता है। यानी वो लड़की, जो बड़े शहर जाकर सब कुछ भोगकर लौटी है। अब वो बच्ची नहीं। उसका कोई भी इस्तेमाल कर सकता है।

रांची के एक दफ्तर के कमरे में मंजू मेरे सामने हैं। पीली सलवार-कमीज पर स्लेटी-नीला दुपट्टा डाले ये लड़की याद करती है- परिवार बड़ा था। मां-पिताजी अनपढ़। उस पर से खेती-बाड़ी कुछ थी नहीं। अक्सर एक वक्त खाते, या अगले दिन के खाने की बात सोचते हुए सो जाते। तभी ये ‘ऑफर’ आया।

मैं तितली की तरह यहां से वहां मंडराते हुए जाने की तैयारियां करने लगी। मां ने दुलार में नए कपड़े और सिंगार-पटार का छुटपुट सामान भी खरीदकर बांध दिया कि बिटिया बड़े शहर जाए, तो किसी से कम न दिखे। वो ऐसे बिदा कर रही थी मानो आखिरी बिदाई हो। शायद आखिरी ही होती अगर मैं बचकर न निकल जाती। धीमी आवाज में मंजू बोल रही हैं।

दिल्ली पहुंचते ही तीनों सहेलियों को अलग कर दिया गया। मैं जहां पहुंची, वहां सब ‘हाफ माइंड’ रहते। मुझसे बहुत बड़े। सब आदमी। मेरा काम उनकी जरूरतें पूरा करना था। मैं तब 8 साल की रही होऊंगी। अनजान शहर में। अकेली। अलग तरह के लोगों के बीच। मंजू यहां हाफमाइंड मानसिक रूप से मंदित लोगों के लिए कहती है।

मंजू कहती हैं कि मैंने भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ी गई। गुस्साए दलाल ने मुझे सहेली के साथ ट्रेन में बैठा दिया। ट्रेन चली तो पता लगा कि वो झारखंड जाने वाली ट्रेन नहीं।

अपने घर पर कभी खाना नहीं बनाया था, यहां रोज पकाती। उनके कमरों तक पहुंचाती और झपटकर अपने कमरे में बंद हो जाती। पता नहीं ऐसे कितना वक्त बीता। कभी गांव में सूरज की पहली किरण देखती थी, दिल्ली में मरी हुई रोशनी वाले बल्ब में आंखें मिचमिचाने लगीं। वहां जंगल मेरा घर था, यहां हाथ हिलाओ तो दीवार टकराए, ऐसे कमरे में कैद रहती।

कभी अड़ोस-पड़ोस में बताकर निकलने की कोशिश क्यों नहीं की? ‘नहीं की। उनसे और भी ज्यादा डर लगता था।’ ये बताते हुए मंजू खाली-खाली आंखों से सामने देखती रहती हैं, फिर कहती हैं- एक बार दूध लेने के बहाने बाहर निकलकर मैंने फोन करने की कोशिश की थी, लेकिन हो नहीं सका। बच्ची थी। बड़ा शहर था। डरकर लौट आई।

एजेंट को पता लगा तो बहुत धमकाया। कहा कि आधी रात में घर से बाहर फिंकवा देगा। लोग चीथड़े कर देंगे और किसी को भनक तक नहीं लगेगी।

शायद हम दोबारा दिल्ली में खो जाते या वहां पहुंच जाते, जहां से हमारी कोई खबर कहीं नहीं पहुंचती, लेकिन हम बच गए। मंजू खोई हुई-सी याद करती हैं।

घर लौटी तो मां ने सीने से चिपटा लिया। वो रो रही थी, और कहे जा रही थी, अब दोबारा तुझे कहीं नहीं भेजूंगी। ये बताते हुए सख्त लहजे वाली मंजू की आवाज थरथरा जाती है। धीरे-धीरे सुबकते हुए वो शायद 8 साल की किसी ऐसी बच्ची के बारे में सोच रही हों, जो इस पल दिल्ली के किसी सूने घर में बड़ों के लिए खाना पका रही होगी, या नमक ज्यादा होने पर पिट रही होगी।

जाते-जाते बच्चियों के एक स्कूल में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करती मंजू हमारा माइक हटाकर कहती हैं- गरीब होने से बड़ा पाप कुछ नहीं मैडम। आप जीते-जी नरक देख लेंगे!

मंजू की अधूरी बात की कड़ियां जोड़ते हैं अरविंद मिश्रा, जो एक संस्था के साथ ह्यूमन ट्रैफिकिंग रोकने पर ही काम कर रहे हैं। वे कहते हैं कि ऐसे लोगों का पूरा नेटवर्क बना है। जिसका काम है गांव में गरीब बच्चियों की पहचान और उन्हें बहलाकर मेट्रो तक पहुंचाना।

तमाम शरीर पर हल्के-गहरे जख्म। प्रेस से जली हुई पीठ जगह-जगह से उधड़ी हुई। जब हमने घर पर दबिश दी, लड़की बाथरूम के फर्श पर पड़ी थी। बहुत कम कपड़े, इतने कि शर्म के कारण कहीं भाग न सके। महीनों इलाज चला, तब जाकर वो अपने गांव का पता याद कर सकी।

मारपीट और भूखा रखना आम है। अक्सर जिस घर में बच्ची रखी गई हो, वहां यौन शोषण भी होता है। लौटने के बाद कम ही बच्चियां उस पर बात करती हैं। वे उस सब को ऐसे भुलाए रखती हैं, मानो दूसरे जन्म की बात हो।

दलालों का नेटवर्क कैसे काम करता है? ज्यादातर मामलों में बच्ची के रिश्तेदार ही एजेंट बनते हैं। कोई-न-कोई फूफा-मौसा-जीजा होता है, जो घरों तक पहुंच रखता है। वो लड़की के अनपढ़ मां-बाप को बहलाता है। बड़े शहर और पढ़ाई-लिखाई के सपने दिखाता है।

रोटी के लिए मशक्कत कर रहे लोग इस जाल में फंसकर बेटी को भेज देते हैं। यहां से एक दूसरा एजेंट उसे लेकर रांची रेलवे स्टेशन पहुंचता है। इतनी-सी देर में प्लेसमेंट एजेंसी लड़की पर काफी पैसे लगा चुकी होती है। लड़की को एक से दूसरे पॉइंट तक पहुंचाते हुए हर एजेंट पैसे लेता है।

इस तरह से दिल्ली पहुंचते-पहुंचते वो बच्ची, जिसने एक साथ कभी हजार रुपए भी नहीं देखे, वो डेढ़ से दो लाख के कर्जे में चली जाती है।

बता दें कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक झारखंड मानव तस्करी के मामले में चौथे नंबर पर है, जहां से करीब हर चौथे रोज एक बच्चे, खासकर लड़की की तस्करी होती है।

अरविंद के बाद हम मिलते हैं, बैद्यनाथ कुमार से, जो बच्चियों की रेस्क्यू पर ही काम करते हैं। बकौल बैद्यनाथ, गांव से दिल्ली-मुंबई पहुंचने वाली हर बच्ची का यौन शोषण होता है। सबसे पहले उसे पहली बार संबंध बनाने के लिए बेचा जाता है।

एजेंट को इसकी बड़ी कीमत मिलती है। इसके बाद बच्चियां प्लेसमेंट एजेंसी के जरिए किसी परिवार को दे दी जाती हैं, जहां वे नौकरानी का काम करती हैं। कई बार ये भी होता है कि वे सेक्स रैकेट में ही फंस जाती हैं। छोटी बच्चियों को नशे के साथ हॉर्मोन्स भी दिए जाते हैं ताकि वे जल्दी बड़ी लगने लगें।

बच्चियां कभी भागती क्यों नहीं?

क्योंकि उनके पास न पैसे होते हैं, न ताकत। सैकड़ों लोगों के गांव से निकलकर वे ऐसे शहर में होती हैं, जहां पड़ोसी तक आपस में बात नहीं करते। ऐसे में वे एक हाथ से बचकर भागेंगी, तो दूसरे हाथ पड़ जाएंगी। साथ ही एजेंट इनका न्यूड वीडियो भी बनाकर रखते हैं, ताकि भागने या लौटने की जिद पर ब्लैकमेल कर सकें।

बैद्यनाथ कहते हैं, अब तक हजारों बच्चियों को रेस्क्यू किया। कई बार धमकियां मिलती हैं। कई बार भेष बदलकर जाना होता है। परिवार पर भी खतरा रहता है, लेकिन कोई भी डर उस तकलीफ से बड़ा नहीं, जो गांव-घर की ये बच्चियां भोग रही हैं।

चिरौंदी में पत्थर की पहाड़ियों से होते हुए हमारा अगला पड़ाव था शेल्टर होम जैसा एक संस्थान, जहां बच्चियां रहती हैं। वहां जाने के लिए तो टैक्सी बुक हो जाएगी, लेकिन लौटने का कोई जरिया नहीं।

तेज बारिश में बजबजाते पगडंडीनुमा रास्तों से होती हुई मैं वहां पहुंची। हालांकि सेंटर पहुंचते ही सारी थकान चली गई। भीतर जाने से पहले ही नई बारिश की तरह बच्चियों की हंसी सुनाई देती है।

इतवार का दिन है, तो पूरा होम शैंपू किए बालों और इतवारी खाने से गमक रहा है। बच्चियां हंसते हुए ही बात शुरू करती हैं, लेकिन धीरे-धीरे मुस्कान सिकुड़ती चली जाती है।

गांव से निकली हर बच्ची दिल्ली-मुंबई में ही नहीं खोती, कईयों के सपने ईंट भट्ठियों में भी जल जाते हैं।

भट्ठी में काम कर चुकी रेखा पूछती हुई-सी कहती हैं- ईंट बनती देखी है कभी? जलती हुई जमीन पर चलने से छाले पड़ जाते हैं। कभी हाथ कटता है, कभी पैर टूटता है, लेकिन कोई भरपाई नहीं।

और पैसे? वो कैसे मिलते हैं? मैं पूछ देती हूं। टुकुर-टुकुर देखते हुए रेखा कहती हैं- हजार ईंटें ढोने के डेढ़-दौ सौ रुपए। ये बोलते हुए ही रेखा उठ जाती हैं। उन्हें फुटबॉल खेलने जाना है। और लौटकर पढ़ना भी है।

नोट: एहतियातन बच्चियों के नाम और चेहरे छिपाए जा रहे हैं।

(कोऑर्डिनेशन- बाल कल्याण संघ, झारखंड)

Show More

Pradeep Sharma

SNN24 NEWS EDITOR
Back to top button